तिरंगे के तीन रंग से एक रंग हरियाली का,
अब यह प्रतीक बन गया बस मेरी बदहाली का!
कहलाता था मै नायक देश की खुशहाली का,
खुशहाली अब मांग रही इक घूंट विष की प्याली का!!
सुनने को ही रह गया के देश मेरा कृषि प्रधान,
अब वर्चस्व की जंग लढ़ रही निर्बल कृषक की पहचान!
कृषिभूमि जो मातृभूमि थी अब तो बन गयी वो शमशान,
अपने लहू से सींच रहा इस शमशान को असहाय किसान!!
कहने को खाद्यान उगाता,पर खुद खाने को नहीं,
रोटी की चाहत से बढ़कर मरण की चाहत हो रही!
देशवासी लाचार पढ़ा है क्या देश की वृद्धि यही,
कृषकपुत्र अन्न को तड़पता क्या ये विवशता है सही!!
भीतर नित नित जलता हूँ बस अर्थी जलनी बाकि है,
पर व्यथा सिर्फ मेरी ही नहीं ये व्यथा देश विपदा की है!
वर्तमान पर जोर नहीं पर भविष्य बतलाता हूँ,
मेरे स्वार्थ का विषय नहीं एक सत्य तर्क समझाता हूँ!!
कृषि समाज का अंत हुआ तो विध्वंस अकाल छा जायेगा,
खेतों में कंकर ही उगेंगे संकट विकट आ जायेगा!
बस यही आशा की चाहत है मेरा देश मुझे भी चाहेगा,
थोड़ी सी ख़ुशी जो पाऊं ,वादा,देश हरित हो जायेगा!!
कृषि समाज का अंत हुआ तो विध्वंस अकाल छा जायेगा,
ReplyDeleteखेतों में कंकर ही उगेंगे संकट विकट आ जायेगा!
absolutely right